फूलों की खुश्बू- हयात सिंह

                शीर्षक- फूलों की खुश्बू

दिसम्बर में शादी हुई। बढ़िया चल रहा था सब कुछ। महीना भर हो गया था साथ में हँसते-हँसाते।  ठिठुरती जनवरी की सुबह थी। नाश्ते में थोड़ा सा देरी हो गई। हद हो गई। नाश्ता तक बना नहीं पाती टाइम पर। ऐसा ही कुछ सुनाई पड़ा था। थोड़ा सा अटपटा तो लगा था, मगर तुरंत ही एहसास हुआ, वाकई देर तो हो गई। वैसे, यह देर क्यों हुई? उसे समझना चाहिये था। चलो कोई नहीं। शाम को बात करुँगी। ऑफिस में शायद कुछ प्रेशर होगा। इसलिए अभी ठीक नहीं। 
भीतर में कुछ चल रहा था। बाहर एक खुश्क मुस्कराहट थी। उसे क्यों नहीं दिखाई दी। ऐसे ही सवाल दर सवाल उमड़ रहे थे। चलो छोड़ो....ये लो मेरी जान..मेरे सोना...तुम्हारा टिफिन भी तैयार। टाइम पर खा लेना। आई लव यू डार्लिंग... लव यू टू सोना..

बीते चार-पाँच महीनों में, ऐसी ही दर्जन भर सुबहें निकल गई। शामें आ कर चली गई। इस सुबह और शाम के अंतराल में मन भीतर सैकड़ों सवाल अपनी मौत मर चुके थे। शाम होते-होते दिल हमेशा कहता, चलो छोड़ो...इतनी छोटी सी बात के लिए क्या बात का बतंगड़ करना। साथ ही एक अजीब सी टीस,  भीतर  ही भीतर बढ़ते जा रही थी। 

बहुत मन था, एम. ए. में एडमिशन लेने का। घरवालों के आगे,एक नहीं चली। शायद पूरी तरह कोशिश नहीं की। चाचा-चाची, मामा-मामी, मौसा-मौसी, भैया-भाभी सबका यही कहना था, यह सब तुम्हारे भले के लिए ही तो कर रहे। आज नहीं तो कल शादी तो करनी ही है। अब खुद ही देखो-समझो। लड़का तो तुम्हें भी पसंद है। शहर में रहता है। देखने में भी ठीक-ठीक है। कॉल सेंटर में टीम लीडर है। पचीस हजार रूपया महीना कमाता भी है। लड़के के माँ-बाप को तुम्हें उसके साथ शहर भेजने में भी कोई आपत्ति नहीं है। 

दस बाय बारह का अटैच्ड किचन रूम सेट। टेलीविजन पर गाना बज रहा है। सुसराल गेंदा फूल.... शादी की पहली सालगिरह है आज। ताजमहल देखने जा रहे हैं। ऋषभ बाथरूम में है। इशिता तैयार हो रही है। ऋषभ का फोन बजता है। माँ, लिखा उभर रहा है स्क्रीन पर। इशिता फोन उठाती है। मम्मी जी प्रणाम। खुश रहो, सदा सुहागन रहो, बहू। 
ऋषभ कहाँ है? नहा रहे माँ जी। कब सुना रही फिर खुशखबरी! हेल्लो-हेल्लो... आवाज नहीं आ रही माँ जी, कॉल बैक करती हूँ अभी। 

भीतर ही भीतर , पोते की रट लगाती सास को, बहू बताये तो बताये कैसे? उनके बेटे का ट्रीटमेंट चल रहा।  दो-चार महीने में शायद कुछ संभावना बने। बेटा स्वयं माँ को बता नहीं पा रहा। संस्कारी है ना, शरमाता भी है।  बहू बता दे तो, सास, हँगामा काट देगी, मेरे बेटे को नामर्द कह रही!

ऋषभ बाथरूम से आवाज लगा रहा। जान.. टॉवल दे दो प्लीज। तुम भी ना यार... इधर भीतर एक अजीब से  टीस कहो, खीझ कहो, झर रही है भीतर फिर से। शादी की सालगिरह है। खुशी का दिन है। इधर माँ जी का फोन, थोड़ा सा असहज कर रहा है। उनका भी अपनी जगह सोचना सही है। चलो छोड़ो.... आज नहीं फिर कभी। 

रात के नौ बज रहे हैं। कमरा, फूलों की खुश्बू से महक रहा है। बल्ब स्विच ऑफ है। नाईट बल्ब जल रहा है। कोने में कैंडल जल रही है। टेलीविजन पर सावन की बरसात जैसी धुन वाला म्यूजिक चल रहा है। ऋषभ बहुत खुश है। इशिता के भीतर हलचल मच रही है। वह बात करना चाहती है। ऋषभ कुछ और चाहता है आज। इशिता कुछ और। ऋषभ कह रहा, आज के बाद भी तो दिन आयेगा, कल सुबह कर लेंगे बात। संडे को छुट्टी होगी। उस दिन कर लेंगे बात। 
इशिता आज केवल बात करना चाहती है। उसका कहना है, यह सब कल कर लेंगे, संडे को कर लेंगे। कमरे का क्या है दुबारा सज जायेगा। आज कुछ बातें जरूरी हैं, प्लीज। तुम तो समझो ऋषभ। 

ऋषभ- बोलो ! क्या कहना है तुम्हें? क्या परेशानी है? लत्ता-कपड़ा, खाना-पीना, सब कुछ कर तो रहा हूँ। साथ में रहते हैं। वरना हमारे गाँव के कई लोग आज भी  अपनी बीबी को गाँव में ही रखे हैं। परेशानी क्या है? बोलो...(यह सब एक ही साँस में कह दिया, अजीब सी खीझ और झुंझलाहट के साथ)

इशिता- ऋषभ ! सुनो जान.. मेरे को इस तरह की कोई परेशानी नहीं है। लेकिन फिर भी बहुत कुछ ऐसा है, जिसे तुमको एक बार सुन लेना चाहिये। तुम बहुत अच्छे हो, लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं जिन के लिए एक बार सोचना चाहिए तुमको। साल भर हो आया है हमारी शादी को। गाँव से माँ जी अक्सर फोन पर पूछती हैं, खुशखबरी कब सुना रही? तुम्हें तो पता है न। क्या जवाब दूँ उनको। मैंने भी बी. ए. किया है। मैं भी छः-महीने, साल-भर नौकरी कर लेती तो बहुत कुछ और आसान हो जाता। दो पैसा जुड़ जाता। भविष्य में हमारे ही काम आता।

ऋषभ- देखो यार...ऐसा है कि तुम सीधा क्यों नहीं कह रही, मैं नामर्द हूँ। (एक अजीब से क्षोभ और गुस्से में) रही बात नौकरी की तो तुम कॉल सेंटर को ठीक से नहीं जानती। वहाँ पर टीम लीडर से लेकर तमाम लड़के, लड़कियों के साथ ठीक विहेव नहीं करते। कस्टमर्स भी फोन पर उल्टा-सीधा बोल, मजा लूटते हैं। किसी साड़ी-ज्वेलर्स की दुकान पर सेल्सगर्ल का काम करोगी तो उधर भी ऐसा ही कुछ घटता है। अब बताओ तुम्हीं, क्या यह सब तुमको अच्छा लगेगा?

इशिता- प्लीज... पहले अपने आप को नामर्द कहना बंद करो। मैंने ऐसा कब कहा। रही बात नौकरी की तो क्या तुम्हारे यहाँ केवल मेल स्टाफ काम करता है? तुम भी तो टीम लीडर हो! 

ऋषभ- अब तुम मुझ पर एलिगेशन लगा रही हो कि मैं बदचलन भी हूँ। वाह... इशिता...वाह... इतना सब अपने भीतर दबा के बैठी रही अब तक। 

इशिता- ऋषभभभ...मेरीरीरी... जान...प्लीज, शांत। थोड़ा सा ठहरकर सोचो। अगर तुम्हें बुरा लग रहा तो प्लीज, कोई नहीं। मैं आज के बात ऐसी बातों का जिक्र नहीं करुँगी कभी। प्लीज...प्लीज...।

टेलीविजन का म्यूजिक बंद हो चुका है। मोमबत्तियां बुझा दी गयी हैं। फूलों की खुश्बू की मजबूरी है बने रहना। ऋषभ को नींद आ गई है। इशिता के मन में तमाम उधेड़बुन चल रही है। ऋषभ कोई नशा-पत्ता नहीं करता, कोई फालतू के यार दोस्त नहीं हैं। टाइम पर घर आ जाता है। छुट्टी के दिन खाने-पीने और लत्ते-कपड़े में भी हाथ बंटा देता है। यूँ देखा जाये तो ऐसी कोई कमी नहीं है उसमें। पिता न बन पाने वाली बात और नौकरी के नाम पर ही वह इतना एग्रेसिव हो जाता है। चलो, कइयों के नसीब तो मेरे से भी खराब हैं। शराबी-जुआरी पति है। घर में कई बार शाम की सब्जी नहीं होती उनके। सास-ससुर भी कहाँ एडजस्ट करते हैं। वगैरा-वगैरा...। नींद नहीं आ रही। कोलाहल चल रहा है भीतर... शायद, यह सब हमारे आस-पास के समाज की कंडीशनिंग के चलते ऐसा हो रहा है। शायद मैंने, दिन ही गलत चुना, बात चीत का। मुझे आज से पहले ही बात कर लेनी चाहिये थी। कम से कम आज के दिन नहीं करना चाहिये था। वगैरा-वगैरा... 

समय की अपनी गति है। वह चलता रहता है। शादी के पाँच बरस हो गये हैं। छत पर टेंट लगा हुआ है। चालीस-पचास से ऊपर लोग जमा हैं। हँसी के ठहाके गूँज रहे हैं। दादी नीचे कमरे में अपने पोते को गोद में लेकर बैठी है। चेहरे में खुशी का नूर टपक रहा है। अडोस-पड़ोस की कुछ औरतें भी बैठी हैं। हँसी-ठिठोली चल रही है। ऋषभ भी बहुत खुश है। दादा जी छत पर, हाथ में दारू का पैग लिए ठहाके लगा रहे हैं। 'अयोध्या में राम जन्म जैसा माहौल है।' किसी की नजर न लगे। 
ऋषभ की आँख खुलती है। यह सपना था, उसे समझते देर न लगी। इशिता किचन में नाश्ता और लंच के लिए टिफिन तैयार कर रही है। चुपचाप बाथरूम में चला जाता है। नहा-धो कर ऑफिस निकल जाता है। ऑफिस में मन नहीं लग रहा। एहसास हो रहा है कि उसने इशिता की बात ठीक से समझने की कोशिश ही नहीं की। एक शिकायत सी टीस भी उठ रही है। इशिता को भी समझना चाहिये। आखिर एक साल हो गया है हमें साथ रहते-रहते। भीतर ही भीतर खलबली मच रही है। अगर लोंगो को पता चला कि मैं बाप नहीं बन सकता तो जाने क्या-क्या बातें बनायेंगे? इशिता नौकरी करने लगेगी तो उसे भी औरों की तरह छींटाकशी का सामना करना पड़ेगा। हे भगवान...क्या करूँ? सॉरी बोलकर माफी माँग लूँगा, यकीन है, वह माफ कर देगी। आज से वह जैसा कहेगी, वैसा ही होगा। देखा जायेगा बाकी सब..... 

इतना सब सोचते-समझते, मन-मष्तिस्क हल्का होता जा रहा है। एक सुकून सा महसूस हो रहा है। फोन करता हूँ। आज खाना न बनाना। बाहर से लेकर आऊँगा। हो सके तो कल की तरह ही एक बार घर डेकोरेट कर लेना.... बाहर की बदबू भले ही मैं खत्म न कर सकूँ, घर के भीतर तो खुश्बू बनाये रखने की कोशिश, कर ही सकता हूँ।

Newest
Previous
Next Post »